श्रीमद्भगवद् गीता में योग शब्द का प्रयोग व्यापक रूप में हुआ है । गीता के प्रत्येक अध्याय के नाम के साथ योग शब्द लगाया गया है जैसे ‘अर्जुनमें हुआ है । गीता के प्रत्येक अध्याय के नाम के साथ योग शब्द लगाया गया है जैसे ‘अर्जुन विषाद योग, सांख्य योग, कर्म योग, ज्ञान कर्म सन्यास योग आदि । एक विद्वान् के अनुसार गीता में इस शब्द उपयोग एक उद्देश्य से किया गया है ।
उन का कहना है कि जिस काल में गीता कही गयी थी, उस समय कर्म का अर्थ प्रायः यज्ञादि जैसे अनुष्ठानों के सन्दर्भ में किया जाता था । इसलिए गीता में कर्म के साथ योग शब्द जोड़ कर इसे अनुष्ठानों से अलग कर दिया । इस योग में कर्म को ईश्वर प्राप्ति का एक साधन बताया गया है । गीता में कर्म योग को सर्वश्रेष्ठ माना गया है । इस के अनुसार कर्म के लिए कर्म करो, आसक्ति रहित होकर कर्म करो, निष्काम भाव से कर्म करो । कर्मयोगी इसीलिए कर्म करता है क्योंकि कर्म करना उसे अच्छा लगता है, इसके परे उसका कोई हेतु नहीं है । भगवान श्रीकृष्ण गीता के दुसरे अध्याय के ४८ वें श्लोक में कहते हैं –
योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते
अर्थात् – हे धनञ्जय अर्जुन कामना को त्याग कर सफलता और असफलता को एक समान मान कर तू अपने कर्म के प्रति एकाग्र रह । कर्म का कोई फल मिले या न मिले – दोनों ही मन की अवस्थाओं में जब व्यक्ति का मन एक समान रहता है । उसी स्थिति को समत्व योग अर्थात् कर्म योग कहते हैं । कर्म में कुशलता या गुणवत्ता तभी आती है जब व्यक्ति मन और बुद्धि को और जगह से हटाकर एक विषय पर अपने मन मस्तिष्क को केन्द्रित कर देता है अध्याय २ के ही ५० वें श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं ‘योगः कर्मसु कौशलम’ अर्थात् कर्म में कुशलता अथवा गुणवत्ता ही योग है । यह कुशलता अथवा गुणवत्ता एकाग्रता से ही आती है । इस में एक शर्त है कि इस प्रकार कर्म करो कि वह बंधन न उत्पन्न कर सके । प्रश्न उठता है कि कौन से कर्म बंधन उत्पन्न करते हैं और कौन से नहीं ? गीता के अनुसार जो कर्म निष्काम भाव से ईश्वर के प्रति समपर्ण भाव से किये जाते हैं, वे बंधन उत्पन्न नहीं करते । वे मोक्षरूप परमपद की प्राप्ति में सहायक होते हैं । इस प्रकार कर्मफल तथा आसक्ति से रहित होकर ईश्वर के लिए कर्म करना वास्तविक रूप से कर्मयोग है और इसका अनुसरण करने से मनुष्य को अभ्युदय तथा निस्श्रेयस की प्राप्ति होती है ।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ।।
अर्थात् तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं । इसलिए तू फल की दृष्टि से कर्म मत कर और न ही ऐसा सोच की फल की आशा के बिना कर्म क्यों करूं । ।। २७ ।।
इस श्लोक में चार तत्व हैं – १. कर्म करना तेरे हाथ में है । २. कर्म का फल किसी और के हाथ में है ३. कर्म करते समय फल की इच्छा मत कर । ४. फल की इच्छा छोड़ने का यह अर्थ नहीं है की तू कर्म करना भी छोड़ दे ।
यह सिद्धांत जितना उपयुक्त महाभारत काल में अर्थात् अर्जुन के लिए था, उससे भी अधिक यह आज के युग में हैं क्योंकि जो व्यक्ति कर्म करते समय उस के फल पर अपना ध्यान लगाते ही वे प्रायः तनाव में रहते हैं । यही आज की स्थिति है । जो व्यक्ति कर्म को अपना कर्तव्य समझ कर करते हैं वे तनाव–मुक्त रहते हैं । ऐसे व्यक्ति फल न मिलने पंर निराश नहीं होते । तटस्थ भाव से कर्म करने करने वाले अपने कर्म को ही पुरस्कार समझते हैं्र उन्हें उसी में शान्ति मिलती हैं ।
इस श्लोक में एक प्रकार से कर्म करने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है । गीता के तीसरे अध्याय का नाम ही कर्म योग है्र इस में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि निष्काम कर्म ही कर्मयोग की श्रेणी में आता है । निष्काम कर्म को भगवान यज्ञ का रूप देते हैं । चौथे अध्याय में कर्मों के भेद बताये गये हैं । इसके १६वें और १७वें श्लोक में श्रीकृष्ण ने कर्म, अकर्म और विकर्म की चर्चा की है्र इसी आधार पर उन्होंने मनुष्यों की भी श्रेणियां बतायी हैं । चौथे अध्याय के १९वें श्लोक में भगवान कहते
हैं ः
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ।।
जिसके सभी कर्म कामना रहित हैं और जिसके सभी कर्म ज्ञान रूपी अग्नि से भस्म हो गए हैं, उनको बुद्धिमान लोग पंडित की उपाधि से विभूषित करते हैं । यहां पंडित का अर्थ है जो शास्त्रों का ज्ञाता हो, विवेकशील हो, ज्ञानी हो और जिसने अपने ज्ञान के प्रभाव से अपने कर्मों की आसक्ति पर विजय प्राप्त कर ली हो । ऐसा व्यक्ति मानता है की वास्तविक कर्ता परमात्मा है । वह तो निमित्त मात्र है्र इस भाव से जो व्यक्ति कर्म करता है वही वास्तविक कर्मयोगी है । गीता के १५वें अध्याय का नाम है पुरुषोत्तम योग । पुरुषोत्तम का अर्थ है( सभी चेतन तत्वों से उत्तम अर्थात् परमात्मा । इसमें भगवान् ने इसी पुरुषोत्तम के विभिन्न पक्षों का विवेचन किया है । इस का प्रारंभ भगवान् एक उल्टे वृक्ष के प्रतीक से करते हैं । इसमें भगवान ने इस संसार को एक ऐसे पीपल के पेड़ के समान बताया है जिसकी जड़े तो ऊपर है, शाखायें नीचे है्र इसमें ऊपर नीचे किसी दिशा के सूचक नहीं हैं, वरन् ऊपर का अर्थ उत्कृष्ट कोटि का और नीचे का अर्थ निम्न कोटि का । । यह पेड़ वास्तविक नहीं है वरन् एक प्रतीक है्र इसी के दूसरे श्लोक में भगवान् कहते हैं कि इस की शाखाएं प्रकृति के तीनों गुणों से पोषित हैं । ‘कर्मानुबंधीनी मनुष्य लोके’ अर्थात् सभी मनुष्यो के कर्म उन को उन के भाग्य अथवा भवितव्य से बांधे हुए हैं्र इनमें संचित कर्म भी होते हैं जो नये किये गये कर्माें के साथ मिलकर मनुष्य के भवितव्य को निर्धारित करते हैं्र प्रायः हम अपने दुखों, परेशानियों अथवा कष्टों के लिये भगवान को दोष दे देते हैं्र ऐसा करते समय हम भूल जाते हैं कि हमने किस तरह के कर्म किये हैं्र इस बारे में ९वें अध्याय में भगवान ब्रह्मस्वरूप होकर कहते हैं कि ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त है्र अर्थात् ब्रह्मांड में जो कुछ भी हो रहा है उन सबमें मै हूं्र यही पर भगवान भक्तों की श्रेणियों ९२२,२३, २४,२५० की बात भी करते हैं्र इसी अध्याय के २७वें श्लोक में कहते हैं कि कर्म करने से कर्मफल छोड़ने की अपेक्षा अपने सभी कर्माें का फल मुझे अर्पित कर दें्र आगे कहते हैं कि –
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबंधनैः ।
सन्न्यासयोगमुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ।। २८
ऐसा करने से तू कर्मों के शुभ–अशुभ फल से मुक्त हो जायेगा । कर्मों के फल का त्याग कर तू संन्यासी योगी होकर मुझे आ मिलेगा ।।२७।।
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् । २९
अर्थात्– मैं सब भूतों में समभाव से व्यापक हूं, न कोई मेरा अप्रिय है, न प्रिय है, परंतु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूं । कुछ मूर्ख लोग कहते हैं कि भगवान भी अपनी कृपा करने में भेदभाव करते हैं – किसी पंर अपनी अधिक कृपा करते हैं और किसी पर कम्र जबकि इस श्लोक में भगवान कहते हैं कि मैं सब भक्तों के प्रति समभाव रखता हूं ।
वास्तविकता यह है कि भगवान किसी से भी राग द्वेष नहीं रखते । जिसके मन में जितनी स्वच्छता होती है, उसके मन में भगवान का प्रतिबिंब उतना ही स्पष्ट होगा्र सूर्य की किरणें कीचड़ पर भी पड़ती है और कांच पर भी और साफ पानी पर भी । कीचड़ पर पड़ी किरणें व्यर्थ होती है, जबकि कांच और साफ पानी पर पड़ी किरणें प्रकाश बिखेरती है । सूर्य किसी से पक्षपात नहीं करता । इसी प्रकार भक्त का शुद्ध और साफ हृदय ही प्रभु की कृपा का वास्तविक और सार्थक पात्र होता है । अंत में हम दूसरे अध्याय के ५०वें श्लोक पर आते हैं –
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसुस् कौशलम ।।
अर्थात्– निश्चित बुद्धि वाला व्यक्ति अच्छे और बुरे दोनों ही प्रकार के फलों का भागी नहीं होता । इसलिए तू कर्म करते समय अपनी बुद्धि को स्थिर रख्र इसी कुशलता को योग कहते हैं । सामान्यतः व्यक्ति अच्छे कर्मों के पुण्य का भागी होना चाहता है, परन्तु भगवान कहते हैं की जिस तरह बुरे कर्म के लिए पाप का भागी होना उचित नहीं है, उसी तरह से पुण्य फल की इच्छा रखना भी उचित नहीं है ।
१. निष्कर्ष रूप में यह कह सकते हैं कि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु अवश्य होगी । प्रत्येक मनुष्य के जन्म और मृत्यु का समय निश्चित है और वह आज ही है ।
२. ईश्वर ने सभी प्राणियों को कर्म करने का अधिकार दिया है, लेकिन उस कर्म के फल पर उनका कोई अधिकार नहीं है । प्रत्येक का भाग्य उस के कर्म से बंधा है अर्थात् हर मनुष्य अपने भाग्य का रचयिता है ।
३. प्रत्येक मनुष्य के लिए परिस्थिति के अनुसार अपनी बुद्धि का प्रयोग करना आवश्यक है । सभी लोगों से अपेक्षित है की वे अपनी योग्यता, बुद्धि और पूर्ण ध्यान से अपना कत्र्तव्य समझ कर कर्म करें ।
४. सभी से अपेक्षित है की वे अपने कर्म के प्रति निर्णय सोच विचार कर लें । निर्णय लेने के बाद उस पर कार्य रणभूमि के सैनिक की तरह से लें, यही कर्मयोग है ।
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