आयुर्वेद का अमृत। जीवनदायी गिलोय

  गिलोय को अमृता भी कहा जाता है। यह स्वयं भी नहीं मरती है और उसे भी मरने से बचाती है, जो इसका प्रयोग करे। कहा जाता है की देव दानवों के युद्ध में अमृत कलश की बूँदें जहाँ जहाँ पड़ीं, वहां वहां गिलोय उग गई। गिलोय हर तरह के दोष का नाश करती है। 
            कैंसर की बीमारी में ६ से ८ इंच की इसकी डंडी लें इसमेंं ह्वीटग्रास का जूस और ५-७ पत्ते तुलसी के और ४-५ पत्ते नीम के डालकर सबको कूटकर काढ़ा बना लें। इसका सेवन खाली पेट करने से खून की कमी भी नहीं होती है। इसकी डंडी का ही प्रयोग करते हैं, पत्तों का नहीं, उसका लिसलिसा पदार्थ ही औषधि है।
             गिलोय की डंडी को चूस भी सकते हैैं, चाहे तो डंडी कूटकर, उसमें पानी मिलाकर छान लें, हर प्रकार से गिलोय लाभ पहुंचाएगी। इसके सेवन से रक्त संबंधी विकार नहीं होते हैं, टाक्सिन खत्म हो जाते हैं और बुखार तो बिलकुल नहीं आता। पुराने से पुराना बुखार खत्म हो जाता है।
           इससे पेट की बीमारी, दस्त, पेचिश, आंव, त्वचा की बीमारी, लीवर की बीमारी, गांठें, मधुमेह, बढ़ा हुआ ईएसआर, टीबी, लिकोरिया, हिचकी आदि ढेरों बीमारियाँ ठीक होती हैं । 
             अगर पीलिया है, तो इसकी डंडी के साथ-  पुनर्नवा ( जिसका गाँवों में साग भी खाते हैं) की जड़ भी कूटकर काढ़ा बनायें और पीयें। किडनी के लिए भी यह बहुत बढ़िया है। गिलोय के नित्य प्रयोग से शरीर में कान्ति रहती है और असमय ही झुर्रियां नहीं पड़ती।
          शरीर में गर्मी अधिक है तो इसे कूटकर रात को भिगो दें और सवेरे मसलकर शहद या मिश्री मिलाकर पी लें। अगर प्लेटलेट्स बहुत कम हो गए हैं, तो चिंता की बात नहीं, एलोवेरा और गिलोय मिलाकर सेवन करने से एकदम प्लेटलेट्स बढ़ते हैं।
           इसका काढ़ा यों भी स्वादिष्ट लगता है, नहीं तो थोड़ी चीनी या शहद भी मिलाकर ले सकते हैं, इसकी डंडी गन्ने की तरह खड़ी करके बोई जाती है। इसकी लता अगर नीम के पेड़ पर फैली हो तो सोने में सुहागा है। अन्यथा इसे अपने गमले में उगाकर रस्सी पर चढ़ा दीजिए। देखिए कितनी अधिक फैलती है। यह और जब थोड़ी मोटी हो जाए तो पत्ते तोडकर डंडी का काढ़ा बनाइये या शरबत। दोनों ही लाभकारी हैं। यह त्रिदोशघ्न है अर्थात किसी भी प्रकृति के लोग इसे ले सकते हैं।
          गिलोय का लिसलिसा पदार्थ सूखा हुआ भी मिलता है। इसे गिलोय सत कहते हैं। इसका अरिष्ट भी मिलता है, जिसे अमृतारिष्ट कहते हैं। अगर ताजी गिलोय न मिले तो इन्हें भी ले सकते हैं। ताजी गिलोय के छोटे-छोटे टुकड़े कर पानी में गला दिया जाता है, गली हुई टहनियों को हाथ से मसलकर पानी चलनी या कपड़े से छानकर अलग किया जाता है और स्थिर छोड़ दिया जाता है, अगले दिन तलछट (सेडीमेंट) को निथारकर सुखा लिया जाता है। यही गिलोय  सत्व होता है, जो औषधि के कड़वेपन से भी मुक्त और पूर्ण लाभकारी होता है। बाजार में भी इसी नाम से मिलता है।
         सूखी गिलोय से भी सत्व निकाला जा सकता है, पर वह मात्रा में कम निकलता है और कुछ कम गुणों वाला हो सकता है। गिलोय घन सत्व-शेष बचे हुए पानी को उबाल कर गाड़ा होने पर धूप में सुखा लिया जाता है, यह गिलोय घनसत्व होता है, यह भी दिव्य औषधि है। ये दोनों गिलोय सत्व एवं गिलोय घनसत्व बहुत उपयोगी पाउडर हैं। सकारात्मक बात यह है कि इसकी मामूली मात्रा भी अद्भुत काम करती है।
            इसे गुर्च भी कहते हैं। संस्कृत में इसे गुडूची या अमृता कहते हैं। कई जगह इसे छिन्नरूहा भी कहा जाता है, क्योंकि यह आत्मा तक को कंपकंपा देने वाले मलेरिया बुखार को छिन्न -भिन्न कर देती है। यह एक झाड़ीदार लता है। इसकी बेल की मोटाई एक अंगुली के बराबर होती है, इसी को सुखाकर चूर्ण के रूप में दवा के तौर पर प्रयोग करते हैं। बेल को हलके नाखूनों से छीलकर देखिये नीचे आपको हरा, मांसल भाग दिखाई देगा। इसका काढ़ा शरीर के त्रिदोषों को नष्ट कर देता है। आज के प्रदूषणयुक्त वातावरण में जीने वाले हम लोग हमेशा त्रिदोषों से ग्रसित रहते हैं। त्रिदोषों को अगर हम सामान्य भाषा में बताने की कोशिश करें तो यह कहना उचित होगा कि हमारा शरीर कफ ,वात और पित्त द्वारा संचालित होता है।
            पित्त का संतुलन गड़बड़ाने पर पीलिया, पेट के रोग जैसी कई परेशानियां सामने आती हैं। कफ का संतुलन बिगड़े तो सीने में जकड़न, बुखार आदि दिक्कतें पेश आती हैं। वात (वायु) अगर असंतुलित हो गई तो गैस, जोड़ों में दर्द, शरीर का टूटना, असमय बुढ़ापा जैसी चीजें झेलनी पड़ती हैं। अगर वातज विकारों से ग्रसित हैं तो गिलोय का पाँच ग्राम चूर्ण घी के साथ लीजिए। पित्त की बिमारियों में गिलोय का चार ग्राम चूर्ण चीनी या गुड़ के साथ लें तथा अगर कफ से संचालित किसी बीमारी से परेशान हैं तो इसे छः ग्राम कि मात्र में शहद के साथ लेना चाहिए। 
           गिलोय एक रसायन एवं शोधक के रूप में जानी जाती है, जो बुढ़ापे को कभी नजदीक नहीं आने देती है। यह शरीर का कायाकल्प कर देने की क्षमता रखती है। किसी भी प्रकार के रोगाणुओं, जीवाणुओं आदि से पैदा होने वाली बिमारियों, खून के प्रदूषित होने, बहुत पुराने बुखार एवं यकृत की कमजोरी जैसी बिमारियों के लिए यह रामबाण की तरह काम करती है । मलेरिया बुखार से तो इसे जातीय दुश्मनी है। पुराने टायफाइड, क्षय रोग, कालाजार, पुरानी खांसी, मधुमेह (शुगर), कुष्ठ रोग तथा पीलिया में इसके प्रयोग से तुंरत लाभ पहुंचता है। बाँझ नर या नारी को गिलोय और अश्वगंधा को दूध में पकाकर खिलाने से वे बाँझपन से मुक्ति पा जाते हैं। इसे सोंठ के साथ खाने से आमवात-जनित बीमारियाँ ठीक हो जाती हैं। गिलोय तथा ब्राह्मी का मिश्रण सेवन करने से दिल की धड़कन को काबू में लाया जा सकता है।
         गिलोय का वैज्ञानिक नाम है--तिनोस्पोरा कार्डीफोलिया। इसे अंग्रेजी में गुलंच कहते हैं। कन्नड़ में अमरदवल्ली, गुजराती में गालो, मराठी में गुलबेल, तेलगू में गोधुची, तिप्प्तिगा, फारसी में गिलाई, तमिल में शिन्दिल्कोदी आदि नामों से जाना जाता है। गिलोय में ग्लुकोसाइन, गिलो इन, गिलोइनिन, गिलोस्तेराल तथा बर्बेरिन नामक एल्केलाइड पाये जाते हैं। अगर घर के आस-पास नीम का पेड़ हो तो वहां गिलोय की बेल लगा सकते हैं। नीम पर चढ़ी हुई गिलोय नीम का गुण भी अवशोषित कर लेती है, इस कारण आयुर्वेद में वही गिलोय श्रेष्ठ मानी गई है जिसकी बेल नीम पर चढ़ी हुई हो।
प्रस्तुति - जितेन्द्र रघुवंशी
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